चुनाव का बिगुल बज चुका है, लेकिन ‘बैंड-बाजे’ की गूंज गायब है. कुछ हद तक इसका कारण यह हो सकता है कि आम चुनाव भीषण गर्मी में ढाई महीने तक चलने वाली मैराथन दौड़ की तरह है. लेकिन उत्साह की कमी की अधिक संभावना इस कारण से हो सकती है क्योंकि परिणाम पूर्व-निर्धारित लगता है. अगर नियति ने कोई चमत्कारी उलटफेर नहीं किया तो नरेंद्र मोदी पं. जवाहरलाल नेहरू की तरह लगातार तीन बार चुनाव जीतने के लिए तैयार हैं. लेकिन कठिन प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में ‘स्वतंत्र’ और है ‘निष्पक्ष’ कहलाने वाले लोकतांत्रिक संघर्ष में सभी के लिए समान अवसर हैं?
इसमें संदेह नहीं है कि विपक्ष अस्त-व्यस्त है। इंडिया गठबंधन खंडित है और अपने विरोधाभासों से जूझ रहा है. महाराष्ट्र और तमिलनाडु को छोड़कर कोई बड़ा राज्य ऐसा नहीं है जहां गठबंधन मजबूती से डटा हो; बिपक्षी एकता के इंजीनियर नीतीश कुमार एक बार फिर पाला बदलकर दूसरे खेमे में जा चुके हैं; ममता बनर्जी फिर से ‘एकला चलो रे’ का मंत्र जपने लगी हैं.
लेकिन इस सबके बावजूद विपक्ष चुनाव में समान अवसर पाने का हकदार है. चुनाव आयोग को ही लें, जो निष्पक्ष तरीके से चुनाव कराने को लेकर वैधानिक रूप से सशक्त है. एक तटस्थ अंपायर का मतलब केवल गुटनिरपेक्ष होना ही नहीं है, उसे ऐसा दिखना भी चाहिए. लेकिन अफसोस कि उसकी भूमिका अब जांच के दायरे में आ गई है. 2019 में प्रधानमंत्री के भाषणों को आयोग द्वारा दी गई क्लीन चिट पर चुनाव आयुक्त अशोक लवासा की असहमति को रिकॉर्ड पर भी नहीं रखा गया था और उन्हें बाहर कर दिया गया. अब 2024 में- सरकार ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में अपनी पूर्ण सर्वोच्चता सुनिश्चित करके सुप्रीम कोर्ट के आदेश को नकार दिया है. यहां तक कि चुनाव कार्यक्रम भी सवाल उठाता है. उदाहरण के लिए, चुनावी हिंसा का कोई इतिहास नहीं होने के बावजूद महाराष्ट्र में पांच चरणों में मतदान क्यों हो रहा है? क्या यह केवल प्रधानमंत्री को भाजपा के स्टार प्रचारक के रूप में हर चरण में प्रचार का अवसर देने के लिए है?
वास्तव में चुनाव आयोग की घटती विश्वसनीयता एक बड़ी संस्थागत गिरावट को दर्शाती है. पिछले साल विकसित भारत यात्रा के दौरान शीर्ष अधिकारियों को ‘रथ प्रभारी के रूप में सरकार की उपलब्धियों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए तैनात करने के केंद्र के कदम ने नौकरशाही के राजनीतिकरण पर विवाद खड़ा कर दिया था. रक्षा मंत्रालय के एक अन्य आदेश में छुट्टी पर गए सैनिकों से ‘सैनिक राजदूत’ के रूप में सरकारी योजनाओं का प्रचार करने को कहा गया. सत्तारूढ़ दल और सरकार के बीच की सीमारेखाएं धुंधली हो गई हैं.
केंद्रीय जांच एजेंसियों के ‘हथियारीकरण’ ने भी यह सुनिश्चित कर दिया है कि विपक्षी नेता तनाव में रहें. कथित शराब घोटाले में अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी शराब मामले में चुनाव की पूर्व संध्या पर बीआरएस नेता के. कविता की गिरफ्तारी के साथ, ईडी की बढ़ती उपस्थिति ने आप नेतृत्व के चारों ओर घेराबंदी की भावना को बढ़ाया है. आईटी भी सक्रिय है : उसने 2018-19 के टैक्स रिटर्न में कथित विसंगतियों पर कांग्रेस से 100 करोड़ की रिकवरी की मांग की है और खाते भी फ्रीज कर दिए गए थे.
वहीं इलेक्टोरल बॉन्ड में अब तक मिले ब्योरों से एजेंसियों द्वारा जबरदस्ती की कार्रवाई और बॉन्ड डोनेशन के बीच संबंध प्रतीत होता है. इससे अनुचित सौदेबाजी की बू आती है. शीर्ष 30 दानदाताओं में से 14 ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हें उस अवधि में जांच कार्रवाई का सामना करना पड़ा था, जब बॉन्ड खरीदे गए थे. इनमें से 50 प्रतिशत से अधिक बॉन्ड का धन भाजपा के खाते में गया. जब एक पार्टी के पास बाकी पार्टियों की तुलना में अधिक खर्च करने की शक्ति होती है तो यह वित्तीय ताकत का ऐसा बेमेल अंतर पैदा करता है, जो चुनाव अभियान को एकतरफा बना देता है।