प्रथम दृष्टया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए अपने तीसरे कार्यकाल में सबसे बड़ी चुनौती गठबंधन सरकार चलाने की लगती है। इसके बावजूद दो ऐसे मोर्चे हैं, जो कठिन हैं, और उन्हें तुरंत नियंत्रण में लाना होगा। एक तो पार्टी के भीतर बढ़ता असंतोष है,
जिसने यूपी, राजस्थान, हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे भाजपा के प्रमुख गढ़ों की अनेक सीटों पर पार्टी की हार में योगदान दिया। पार्टी ने इन चार राज्यों में 59 सीटें खो दीं। 2019 की तुलना में 2024 के चुनावों में इतनी सीटों पर हार के कारण ही भाजपा लोकसभा में 272 सीटों के बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने में विफल रही थी। दूसरी समस्या संघ से संबंधों की है। हाल ही में दोनों के बीच तनाव बढ़ा है, जिसके कारण संघ ने भाजपा के लिए हर बार जितने उत्साह से काम नहीं किया। यह भी कई राज्यों में पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन का एक कारण है।
मतभेद अब सार्वजनिक हो चुका है। सबसे पहले इसको उजागर करने वाले भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा थे, जिन्होंने कहा था कि भाजपा को अब संघ की जरूरत नहीं है। उन्होंने चुनाव प्रचार के बीच में ही यह धमाका कर दिया था। इससे उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को
बहुत झटका लगा, जो संघ को अपना मार्गदर्शक मानते हैं। चुनाव के बाद संघ प्रमुख मोहन भागवत की पहली टिप्पणी ने भी पुष्टि की कि भाजपा-संघ के संबंधों में सच में ही कुछ तनावपूर्ण घटित हो रहा है। भागवत ने अहंकार को लोकसेवक के लिए अनुचित बताया, कटु चुनाव प्रचार के दौरान शिष्टाचार की कमी पर दुःख जताया और संसद चलाने के लिए आम सहमति की आवश्यकता पर जोर दिया।
मोदी 3.0 के लिए अपने ही परिवार के भीतर की समस्याएं अपने सहयोगियों को साथ लेकर चलने से कहीं मुश्किल चुनौती साबित हो सकती हैं। यह टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू और जदयू के नीतीश कुमार के साथ सामंजस्य बिठाने से भी कठिन हो सकता है। जैसे-जैसे भाजपा के गढ़ों, खासकर यूपी में उसकी हार की भयावहता का अहसास तीखा हो रहा है, सोशल मीडिया और यूट्यूब पर आम कार्यकर्ताओं की आवाजें उभर रही हैं। वे दूसरी पार्टियों से आए दलबदलुओं के लिए उन्हें दरकिनार किए जाने का सबसे ज्यादा विरोध कर रहे हैं। हरियाणा कैडर तो कुप्रबंधन का सबसे बड़ा उदाहरण साबित हुआ। वहां की दस लोकसभा सीटों में से छह पर
भाजपा ने नए-नए उसमें आए कांग्रेसी नेताओं को मैदान में उतार दिया, जिसके परिणामस्वरूप कार्यकर्ताओं ने खुलकर विद्रोह किया। पार्टी ने पांच सीटें उस राज्य में खो दीं, जहां उसने 2014 और 2019 में एकतरफा जीत दर्ज की थी।
एक शक्तिशाली व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द कांग्रेस जैसी हाईकमान – संस्कृति को विकसित करने के खतरे अब साफ नजर आने लगे हैं। विगत दस वर्षों में, भाजपा हाईकमान ने इंदिरा गांधी मॉडल को अपनाया और क्षेत्रीय नेताओं को हाशिए पर करने की नीति अपनाई। उनकी जगह एक-आयामी मॉडल विकसित किया गया, जिसके चलते बिना किसी सवाल के दिल्ली से आने वाले आदेशों का पालन करना अपेक्षित था। यह राजनीतिक प्रबंधन किसी राज्य में भले काम कर सकता हो, लेकिन भारत जैसे बड़े, विविधतापूर्ण देश के
अनुकूल नहीं है।
अटल और आडवाणी जैसे नेता पार्टी में अपने
उत्तराधिकारियों को तैयार करके गए थे। भाजपा और संघ के
कार्यकर्ता इसी मॉडल के आदी हैं। उनके लिए कांग्रेस जैसी
दिखने वाली भाजपा में काम करना मुश्किल हो रहा है।
इंदिरा गांधी के हाईकमान मॉडल ने कांग्रेस को जो नुकसान पहुंचाया है, उसे समझने के लिए पार्टी के संगठन की दयनीय स्थिति को देखना भर काफी होगा। पिछले कुछ वर्षों में, भारतीय राजनीति की सबसे पुरानी यह पार्टी मजबूत क्षेत्रीय नेताओं की कमी के कारण उन राज्यों में भी निष्प्रभ हो गई है, जो कभी उसके गढ़ हुआ करते थे। वास्तव में, पार्टी इतनी कमजोर हो गई है कि वह इस बार अपने सहयोगियों के साथ 328 से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए सौदेबाजी नहीं कर सकी, जो अब तक की उसकी सबसे कम संख्या थी।
संघ को ‘पर्सनैलिटी-कल्ट’ की शैली पसंद नहीं आती है। अटल-आडवाणी ने भी इस शैली को नहीं अपनाया था और राज्य के नेताओं को पोषित किया था। वास्तव में मोदी भी ऐसे ही एक क्षेत्रीय नेता थे। अटल-आडवाणी अपने उत्तराधिकारियों को तैयार करके गए थे। भाजपा और संघ के कार्यकर्ता इसी मॉडल के आदी हैं। उनके लिए कांग्रेस जैसी दिखने वाली भाजपा में काम करना मुश्किल हो रहा है। अगले चार महीनों में तीन महत्वपूर्ण चुनाव (महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड) हैं और फिर 2025 में दो और चुनाव (दिल्ली और बिहार) होने वाले हैं। आगे की चुनौतियों से निपटने के लिए भाजपा को जल्दी से जल्दी अपनी कार्यप्रणाली में सधार लाना होगा।