परिवर्तन संसार का नियम है, इस संसार में प्रति पल नित नए परिवर्तन होते रहते हैं. और परिवर्तन के साथ उस काल में हुए कार्यों की प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है, और नवीनता निरन्तर बढ़ती जाती है. पटंतु कुछ चीज ऐसी भी हैं जो कई हजार वर्षों बाद भी अपना अस्तित्व, अपनी प्रासंगिकता, अपना महत्व कायम ही नहीं रखती वटना उसे विराट स्वरूप में जन उपयोगी होने का महत्व प्रतिपादिन करती है.
इन्हीं प्राचीन किंतु प्रासंगिक चीजों में यदि सर्वाधिक प्रासंगिक चीज है, तो वह है महावीर की जन कल्याणकारी वाणी. आज से करीब ढाई हजार साल पहले भगवान महावीर के सिद्धांतों से दुनिया को जो नई दिशाएं दी थीं. वे ही सिद्धांत आज ढाई हजार साल बीतने के बाद भी प्रासंगिक बने हुए है. इतना ही नहीं महावीट की वाणी उनके सिद्धांत बीते हुए कल के बजाए आज और भी ज्यादा प्रांसगिक हो गई है.
भगवान महावीर ने अहिंसा को धर्म में सर्वोपरि स्थान प्रदान कर उसे धर्म के रूप में प्रतिपादित किया है. वैसे तो अहिंसा दुनिया के सभी धर्मों में मौजूद है, लेकिन जैन धर्म की अहिंसा अपनी विराटता के कारण अपना विशेष स्थान रखती है.
विश्व में हो रही हिंसा, आपसी टकराव, तीसरे विश्व युद्ध की संभावनाओं को महावीर की अहिंसा से टोका जा सकता है. विचारधाटाओं से संभावित हिंसा के अलावा दुनिया के अनेक देश आपसी संघर्षों में लगे हुए हैं और हिंसा के केन्द्र बन चुके हैं. इतना ही नहीं देश के प्रदेश के और शहटों, गावों में भी हिंसा बढ़ी है.
विचारधाराओं और हिंसा से हो रहे दोनों तरफ के संघर्षों को महावीर के जियो और जीने दो जो कि अहिंसा पर आधारित है. उससे इस हिंसात्मक टकराव को समाप्त किया जा सकता है. विज्ञान ने ‘परिग्रह’ को बहुत अधिक बढ़ावा दिया है और ‘परिग्रह’ ही सामाजिक, आर्थिक अपराध का मूल कारण है. अपराध, हत्याएं, भ्रष्टाचार,दहेज प्रथा ये सभी ‘परिग्रह की देन है.
भगवान महावीर ने कहा कि उतना रखो जितनी आवश्यकता है, यानी ‘पेट भरो … पेटी नहीं’.
यदि आज हम महावीर के इन सिद्धांतों को मान लें और इसका अनुसरण करें तो विश्व भर में सामाजिक खुशहाली होगी और सारे विश्व में सच्चा समाजवाद स्थापित हो सकेगा.
भगवान महावीट ने संसार को अनेकांतवाद का आदर्श पाठ सिखाया यानी मैं जो कह रहा हूं वह भी सत्य है औट जो दूसरे कह रहे हैं वह भी सत्य हो सकता है. देश-विदेश हो, समाज हो, जाति हो या परिवार आपसी संघर्ष का मुख्य कारण है कि वैचारिक वैमनस्यता, लेकिन अनेकांतवाद ही एकमात्र औषधि है जो इस वैचारिक वैमनस्यता की बीमारी को जड़ से समाप्त कर सकती है.