भगवान महावीर के दर्शन में प्रदर्शन के लिए कोई स्थान नहीं है। कारण यही है कि दर्शन अपने लिए है, अपनी आत्मा की उन्नति के लिए है, आत्मा की अनुभूति के लिए है। दर्शन का अर्थ है देखना लेकिन प्रदर्शन में तो मात्रा दिखाना ही है। देखना ‘स्व’ का होता है और दिखाने में कोई दूसरा होता है।
यदि हमें महावीर भगवान बनना है तो पल-पल उनका चिंतन कटना अपेक्षित है। यह महावीर जयंती की सार्थकता है और इसी से हम महावीर बनने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं।
भगवान महावीर के दर्शन में प्रदर्शन के लिए कोई स्थान नहीं है। कारण यही है कि दर्शन अपने लिए है, अपनी आत्मा की उन्नति के लिए है, आत्मा की अनुभूति के लिए है। दर्शन का अर्थ है देखना लेकिन प्रदर्शन में तो मात्र दिखाना ही है। देखना ‘स्व’ का होता है और दिखाने में कोई दूसरा होता है। आज तक संसारी प्राणी की सभी क्रियाएं देखने के लिए न होकर दिखाने के लिए होती आयी हैं। प्रत्येक व्यक्ति इसी में धर्म मान रहा है। वह सोचता है कि मैं दूसरे को समझा दूं। यह प्रक्रिया अनादिकाल से क्रमबद्ध तटीके से चली
आरही है। यदि ऐसी क्रमबद्धता दर्शन के विषय में होती तो उद्धार हो जाता।
व्यक्ति जब दार्शनिक बन जाता है तो हजारों दार्शनिकों की उत्पत्ति में निमित्त कारण बन जाता है और जब एक व्यक्ति प्रदर्शक बन जाता है तो सब ओर प्रदर्शन प्रारंभ हो जाता है। प्रदर्शन की प्रक्रिया बहुत आसान है, देखा-देखी जल्दी होने लगती है। उसमें कोई विशेष आयाम की आवश्यकता नहीं है। प्रदर्शन के लिए शारीरिक, शाब्दिक या बौद्धिक प्रयास पर्याप्त है लेकिन
दर्शन के लिए एकमात्र आत्मा की ओर आना पर्याप्त है। दर्शन तो विशुद्ध अध्यात्म की बात है।
भगवान महावीर ने कितनी साधना की, वर्षों तप किया लेकिन दिखावा नहीं किया, ढिंढोटा नहीं पीटा। जो कुछ किया अपने आत्म-दर्शन के लिए किया। सब कुछ पा लेने के बाद भी यही नहीं कहा कि मुझे बहुत कुछ मिला। प्रदर्शन करने से दर्शन का मूल्य कम हो जाता है। उसका सही मूल्यांकन तो यही है कि दर्शन को दर्शन ही रहने दिया जाए।जब प्रदर्शन के साथ दिग्दर्शन भी होने लगता है तो उसका मूल्य और भी कम हो जाता है। प्रदर्शन का मूल्य भी हो सकता है लेकिन उसके साथ दर्शन भी हो। जिसने स्वयं नहीं किया वह दूसरे को क्या करवा सकेगा?
आज खान-पान, रहन-सहन आदि सभी में प्रदर्शन बढ़ता जा रहा है। आपका शरृंगार भी दूसटे पर आधारित है। दूसरा देखने वाला न हो तो श्रृंगाट व्यर्थ मालूम पड़ता है। दर्पण देखते हैं तो दृष्टिकोण यही रहता है कि दूसरे की दृष्टि में अच्छा दिखाई पड़ सकें। इस तरह आपका जीवन अपने लिए नहीं दूसरे को दिखाने के लिए होता जा रहा है। सोचिए, अपने लिए आपका क्या है? आपकी कौन-सी क्रिया अपने लिए होती है? सारी दुनिया प्रदर्शन में बहती चली जा रही है। जीवन में आकुलता का यह भी एक कारण है।
भगवान महावीर का दर्शन तो निराकुलता का दर्शन है। यह अनुभूतिमूलक है। प्रदर्शन में आकुलता है, वहां अनुभूति नहीं, कोटा ज्ान है। भगवान महावीर उस ज्ञान को महत्वपूर्ण मानते हैं जो अनुभूत हो चुका है। पटाया जान कार्यकाटी नहीं है, अपना अनुभूत ज्ञान ही कार्यकारी है। हमारे लिए जो जान, कर्म के क्षयोपशम से मिला है, वही जान सब कुछ है। भगवान का केवलज्ञान निमित्त बन
सकता है, लेकिन उस ज्ञान के साथ हमारे अनुभव का पुट नहीं है। उनका अनंत ज्ञान क्षायिक ज्ञान है और हमाटा क्षयोपशम ज्ञान है जो सीमित है। अनंत ज्ान हमारे लिए पूज्य है, हम उसे नमस्कार कह देते हैं कि वंदे तद्गुण लब्धये- आपके गुणों की प्राप्ति के लिए आपको प्रणाम करते हैं। गुणों की प्राप्ति स्वयं की अनुभूति से ही होगी।
स्वरुप का भान नहीं होने के कारण ऐसा हो रहा है कि अपने पास जो निधि है उसका दर्शन, उसका अनुभव भी हमें नहीं हो पाता। साटा जीवन दूसरे को देखने दिखाने में व्यतीत हो जाता है और अधूटा रह जाता है। जो व्यक्ति अपने जीवन को पूर्ण बनाना चाहता है वह भगवान महावीर दूसरे पर आधारित नहीं रहेगा, दूसटे का आलम्बन तो लेगा लेकिन लक्ष्य स्वावलम्बन का टखेगा। आज तक हमारा जीवन, हमारा जान अधूरा इसलिए रहा क्योंकि दूसरे के दर्शन कटने औट दूसटे के माध्यम से ही सुख पाने का हमारा लक्ष्य रहा। अभी भी कोई बात नहीं है, जो होना था वह तो हो गया. लेकिन आगे के लिए कम से कम उस ओट न जाएं।
सुख की अनुभूति अपने ऊपट निर्धारित है। दूसरा कोई हमें सुख नहीं दे सकता। अनंत चतुष्टय को धारण कटने वाले भगवान भी हमें अपना सुख नहीं दे सकते। स्व-पर का भेद- विज्ञान यही है। सम्यग्दृष्टि कम हैं। मिथ्यादृष्टि की संख्या अनंत है। कोई कुछ भी कहे, हम अपने संसार के अभाव का प्रयत्न करें।सारे संसार की चिंता न करें। दिग्दर्शन वही कर सकता है जो स्वयं का दर्शन करता है।
चुनाव कने वाले आप हैं, प्रदर्शन आपको बहुत अच्छा लग रहा है किन्तु ध्यान रखिये कि सारा प्रदर्शनमय जीवन निरर्थक है। प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र है, आप जैसा जीना चाहें जी सकते हैं। चूंकि आत्मोन्नति और आत्मोपलब्धि दर्शन से ही संभव है, इसलिए अपने जीवन को स्वयं संभालने का प्रयास करिये।