मनुष्य जाति को तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है- भविष्यदर्शी, वर्तमानदर्शी और विगतदर्शी । अतीत को देखना और उसके बारे में सोचना कोई बडी बात नहीं है। अपनी गतिविधि या कार्यशैली को मोड़ देने के लिए अतीत की समीक्षा उपयोगी हो सकती है। किन्तु अतीत के बारे में अधिक चिंतन करने से कोई उपलब्धि हो सकती है, ऐसा प्रतीत नहीं होता।
पैरों के सामने कोई भी देख सकता है। किसी में चिंतन की क्षमता हो या नहीं, वर्तमान में घटित घटनाओं पर दृष्टिपात सहज ही हो जाता है। मनुष्य की बात ही क्या, एक पशु भी वर्तमानजीवी हो सकता है। खान-पान, सुरक्षा, बचाव आदि उसके सारे कार्य तात्कालिक अपेक्षाओं और परिस्थितियों के आधार पर होते हैं।
चिंतनशील वह कहलाता है, जो भविष्य को देखता है। सौ-पचास वर्ष की बात सोचे बिना कोई भी व्यक्ति किसी बड़ी योजना का प्रारंभ नहीं कर सकता। इस संसार में जितने अर्थशास्त्री हुए हैं, जिन-जिन लोगों ने नयी अर्थनीतियों का प्रवर्तन किया है, संभवतः उन्होंने दूरगामी चिंतन को क्रियान्वित करने की चेष्टा की है। समाज सुधार या मनुष्य को सुखी बनाने की अभिप्रेरणा से किए गए प्रयत्नों का स्वागत भी होता है। किन्तु इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि जब तक मनुष्य के भीतर कषाय की विद्यमानता रहेंगी, वह सुखी नहीं बन पाएगा।
धर्म और मजहब दो अलग तत्व हैं। धर्म सदा अच्छा ही होता है। बुराई मजहबों से आती हैं। हर धर्म के सिद्धांत ऊंचे होते हैं, किन्तु आदमी उनका ईमानदारी से पालन नहीं करता। जब तक धर्म आत्मसात नहीं हो पाता, आदमी अच्छा नहीं बन पाता। सब कुछ ठीक होने पर भी आदमी ठीक नहीं है तो कोई भी काम ठीक नहीं होता। इसलिए सबसे पहले आदमी को ठीक करने की जरूरत है, उसकी वृत्तियों को बदलने की जरूरत है, कषाय को कम करने की जरूरत है।
कषाय के आखिरी छोर पर प्रतिष्ठित है लोभ । लोभ की अभिप्रेरणा व्यक्ति को अर्थार्जन की दिशा में अग्रसर करती है। इस दिशा का जितना विस्तार होता है, लोभ की मात्रा उतनी ही बढ़ जाती है। जितनी संपन्नता, उतनी तृष्णा । यह एक शाश्वत सच्चाई है।
कुछ विशिष्ट व्यक्तियों का चिंतन दूसरा ही है। वे मानते हैं- जिस व्यक्ति की तृष्णा अधिक होती है वह उतना ही दरिद्र होता है। वह व्यक्ति सबसे अधिक समृद्ध है, जो पूरी तरह से संतुष्ट रहता है।
दरिद्र और समृद्ध की यह परिणाम स्पष्ट करती है कि दरिद्रता और समृद्धि का संबंध अर्थ से नहीं, व्यक्ति के विचारों से है, वृत्तियों से है। इसलिए वृत्तियों और विचारों के परिष्कार की अपेक्षा है।
मंगलम भगवान पीरो, मंगलम गौतमो प्रमु मंगलम स्थूलभद्राचार्य, जैन धर्मोस्तु मंगलम
अर्थ जीवन-यापन का साधन है, यह बात सही है। यदि उसे साधन रूप में ही स्वीकृत किया जाता तो अर्थार्जन की सीमा हो जाती। किन्तु जब वह साधन के सिंहासन से उठकर साध्य के सिंहासन पर जा बैठता है, समस्या तभी पैदा होती है। जहां अर्थ को विलासिता और प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाया जाता है, वहां भी और प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाया जाता है, वहां भी उलझने बढ़ती है।
अर्थ के साथ सुख-शांति की असत् कल्पनाएं भी जुड़ी हुई हैं। पर ऐसी कल्पनाओं की रीढ़ भी जुड़ी हुई हैं। पर ऐसी कल्पनाओं की रीढ़ उस समय टूट जाती है, जब एक अकिंचन व्यक्ति के सुख के साथ चक्रवर्ती सम्राट का सुख तोला जाता है। राग, मद और मोह को जीतने वाला अकिंचन मुनि तिनकों के बिछौने पर बैठकर जिस अनिर्वचनीय सुख का अनुभव करता है, एक चक्रवर्ती सम्राट उसकी कल्पना ही नहीं कर सकता।
महावीर का दर्शन कहता है कि सुख न पदार्थ में है और न उसके त्याग या भोग में है। सुख है व्यक्ति की अपनी वृत्तियों में। मनुष्य अपने आप में रहना सीख ले तो वह संसार का बसे बड़ा सुख पा सकता है। संसार के अधिक लोग इस बात में विश्वास नहीं करेंगे। फिर भी यह तो निश्चित है कि भागदौड़ प्रतिस्पर्धाओं और खींचातान में सुख नहीं, केवल सुखाभास ही मिल सकता है।
मनुष्य की मनोवृत्ति, सुविधावादी होती है, भोगवादी होती है। सुविधा और भोग के लिए अर्थ की अंधी दौड़ में उचित-अनुचित का विवेक ही समाप्त हो जाता है। जब तक साधन-शुद्धि की बुनियाद पर नियंत्रित इच्छाओं का महल खड़ा नहीं होगा तब तक आदमी सुख-चैन से नहीं जी सकेगा।
गांधी अध्यात्मवादी व्यक्ति थे। उन्होंने अपने जीवन में अध्यात्म के अनेक प्रयोग किए। अहिंसा के प्रति उनकी प्रगाढ़ आस्था थी। वे अपनी आस्था को सार्वजनिक बनाना चाहते थे। वे पूरे समाज, देश या मानव जाति के अभ्युदय की चिंता करते थे। उनका चिंतन व्यक्तिवादी नहीं, समाजोन्मुखी था। गांधीजी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने व्यक्तिनिष्ठ अहिंसा का समाज और राजनीति में प्रवेश करा दिया। वे अहिंसा और सत्य के पुजारी थे। इसलिए प्रत्येक कार्य की श्रेष्ठता का मानक उन्हीं को मानते थे।
कार्लमार्क्स जर्मनी की धरती पर जन्मे । उनके मन में करुणा थी। उन्होंने सोचा देश में करोड़ों लोग भूखे हैं। इन्हें भरपेट भोजन नहीं मिलता। पहनने के लिए पूरा कपड़ा नहीं मिलता। रहने के लिए मकान नहीं मिलता। यह स्थिति कब तक रहेगी? थोड़े-से लोग सम्पदा का भरपूर भोग करें और शेष लोग अभावों के रेगिस्तान में तड़पते रहें, यह व्यवस्था किसी भी देश के लिए सुखद नहीं है। मार्क्स का ध्यान गरीबों, श्रमिकों और दलितों पर टिका । मार्क्स ने लोगों की अंध श्रद्धा तोड़ने का जो विलक्षण कार्य किया वह उनके चिंतन का मौलिक अवदान है। मार्क्स ने कर्म के सिंहासन पर पुरुषार्थ को प्रतिष्ठित किया ।
कीन्स का झुकाव पूंजीवाद की ओर था। वे देश को समृद्ध बनाने के पक्ष में थे। वर्ग संघर्ष को उन्होंने मान्यता नहीं दी। उनका चिंतन था – सब लोग समृद्ध नहीं बन सकते तो जितने बन सकते हैं, उन्हें स्मृद्धि के शिखर पर आरोहण करने दो। देश में सम्पन्नता बढ़नी चाहिए, उसके लिए नैतिकता – अनैतिकता जैसी बातों में उलझने का कोई औचित्य नहीं है। लोग भूखे हैं तो क्या नैतिकता से पेट भर जाएगा? देश समृद्ध होगा, लोग निश्चिन्त रहेंगे तो नैतिक मूल्यों की चर्चा को पूरा अवकाश रहेगा।
महावीर ने जैसा दर्शन दिया, वैसा ही जीवन जिया । उन्होंने जिस सत्य को पाया, उसे जनता के सामने प्रस्तुत किया। किन्तु उसे स्वीकार करने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया। उन्होंने कहा – ‘स्वयं सत्य की खोज करो। किसी दूसरे के द्वारा खोजे हुए सत्य पर मत रुको। अपनी खोज जारी रखो। उधारा सत्य कभी अपना नहीं हो सकता। उसके आधार पर निश्चिन्त होकर बैठने वाला कभी अपने सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता।
महावीर ने कहा- ‘तुम देखो। अन्य किसी की बात सुनने का प्रसंग हो तो सुनो, किन्तु उस पर अपनी बुद्धि से सोचो। बिना सोचे-समझे किसी बात को स्वीकार करना बुद्धिमता का काम नहीं है। तुम सबकी बात सुनो, पर जो तुम्हें अच्छा लगे, आचरण उसी का करो।
कुछ व्यक्ति महावीर के पास जाकर बोले- ‘भन्ते! हम शांति से जीना चाहते हैं, पर हमारा मन शांत नहीं रहता। हम क्या करें?’ महावीर ने कहा- ‘शांति और अशांति दोनों आपके भीतर हैं। आप स्वयं निर्णय करें कि आपको क्या चाहिए? यदि आप शांति के इच्छुक हैं तो आपको अपनी आकांक्षाओं को सीमित करना होगा। इस संसार में पदार्थों की सीमा है। आप असीम सम्पदा पाना चाहते हैं। यह कैसे संभव है? दूसरी बात जितना कुछ संसार में है, वह सब आप ले लेंगे तो अन्य लोगों की आवश्कताएं पूरी नहीं होगी। एक व्यक्ति या वर्ग बहुत कुछ प्राप्त करे और दूसरा व्यक्ति या वर्ग भूखा रहे । ये दोनों ही स्थितियां शांति में बाधक है।
अर्थ के बिना संसार का काम नहीं चलता। समाज में रहने वाला कोई भी व्यक्ति अपरिग्रही नहीं बन सकता। वह भीख मांगकर भी अपना काम नहीं चला सकता। इसीलिए वह अर्थार्जन से उदासीन नहीं हो सकता। अर्जन और भोग पर प्रतिबंध लगाना धर्म का काम नहीं है। धर्म का काम है इन पर अंकुश लगाना । महावीर ने कहा-आकांक्षाओं को सीमित करो, साधन-शुद्धि पर ध्यान दो और उपभोग का संयम करो।’ ।